नई दिल्ली: कहते हैं कि अगर एक महिला ठान ले, तो वह किसी भी चुनौती को पार कर सकती है, चाहे उसे समाज की बेड़ियां ही क्यों न तोड़नी पड़े। कादम्बिनी गांगुली ऐसी ही एक प्रेरणादायी शख्सियत थीं, जिन्होंने उस दौर में सफलता के झंडे गाड़े, जब महिलाओं को घर की चारदीवारी तक सीमित रखा जाता था। उन्होंने न केवल अपनी जिंदगी को दूसरी महिलाओं के लिए एक मिसाल बनाया, बल्कि भारतीय इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी।
कादम्बिनी गांगुली भारतीय इतिहास की एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने लिंग और सामाजिक बंधनों को तोड़ते हुए चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाई। वे भारत की पहली महिला ग्रेजुएट (बीए) थीं और पहली भारतीय महिला चिकित्सक भी बनीं, जो पश्चिमी चिकित्सा (वेस्टर्न मेडिसिन) में प्रशिक्षण प्राप्त कर प्रैक्टिस करने लगीं। एक समाज सुधारक पिता की बेटी कादम्बिनी ने पुरुष-प्रधान चिकित्सा शिक्षा में न केवल महिलाओं के लिए रास्ते खोले बल्कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला वक्ता के रूप में राजनीतिक मंच पर भी अपनी आवाज बुलंद की।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के मुताबिक, कादम्बिनी गांगुली का 18 जुलाई, 1861 को बिहार के भागलपुर में एक बंगाली परिवार में जन्म हुआ था। उनके पिता ब्रजकिशोर बसु एक ब्रह्मो सुधारक थे, जो महिलाओं की मुक्ति के लिए कार्यरत संगठन से जुड़े थे। उनकी प्रगतिशील विचारधारा ने कादम्बिनी के व्यक्तित्व को आकार दिया। उन्होंने कोलकाता के बेथ्यून कॉलेज में दाखिला लिया और 1883 में कला स्नातक (बीए) की डिग्री प्राप्त की, जिससे वह चंद्रमुखी बसु के साथ भारत और ब्रिटिश साम्राज्य की पहली महिला स्नातक बनीं। पुरुष-प्रधान समाज की बाधाओं को पार करते हुए उन्होंने कोलकाता मेडिकल कॉलेज में चिकित्सा शिक्षा प्राप्त की, जहां पहली बार एक महिला को प्रवेश दिया गया।
गांगुली ने 1886 में बंगाल मेडिकल कॉलेज (जीबीएमसी) की डिग्री प्राप्त की, जिससे वह पश्चिमी चिकित्सा का अभ्यास करने वाली भारत की पहली महिला चिकित्सक बनीं। उसी साल आनंदीबाई जोशी को अमेरिका में चिकित्सा की डिग्री मिली थी, लेकिन बीमारी के कारण अभ्यास नहीं कर सकीं और कादम्बिनी के नाम भारत में पश्चिमी चिकित्सा का अभ्यास करने वाली पहली महिला के रूप में दर्ज हुआ।
बताया जाता है कि कादम्बिनी गांगुली की 1888 में कोलकाता के लेडी डफरिन अस्पताल में सहायक के रूप में नियुक्ति हुईं, जहां उन्होंने महिलाओं की स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित किया। हालांकि, उन्हें लैंगिक और नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा, जिसके खिलाफ उन्होंने स्थानीय समाचार पत्र में एक सार्वजनिक पत्र भी लिखा। इसके बाद वे 1893 में यूनाइटेड किंगडम गईं और उन्होंने एलआरसीपी (एडिनबर्ग), एलआरसीएस (ग्लासगो) और जीएफपीएस (डबलिन) जैसे विश्वप्रसिद्ध मेडिकल संस्थानों से डिग्रियां प्राप्त कीं।
गांगुली ने भारत लौटकर प्रैक्टिस शुरू की, उन्होंने विशेष रूप से स्त्री रोग और महिलाओं के स्वास्थ्य पर ध्यान दिया। उनकी मरीजों में नेपाल का शाही परिवार और कोलकाता के उच्चवर्गीय परिवार भी शामिल थे।
एक चिकित्सक होने के साथ-साथ डॉ. गांगुली एक राष्ट्रभक्त और राजनीतिज्ञ भी थीं। 1889 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पांचवें अधिवेशन की छह महिला प्रतिनिधियों में से वे एक थीं और अगले साल कांग्रेस में भाषण देने वाली पहली महिला भी बनीं। उन्होंने 1907 में ट्रांसवाल इंडियन एसोसिएशन की चेयरपर्सन के रूप में भी काम किया।
चिकित्सा और अन्य क्षेत्रों में उन्होंने महिलाओं के लिए कई बाधाएं तोड़ीं, जो भविष्य की महिला चिकित्सकों और सुधारकों के लिए प्रेरणा बनीं। 3 अक्टूबर 1923 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन तब तक वे महिलाओं और लड़कियों के लिए एक प्रेरणा का केंद्र बन गईं।